चड्डी पहन के फूल खिला
आज चाय पीते समय कविता की कुछ पंक्तियां "गुलज़ार" कर गईं
एक परिन्दा है शर्मिंदा,
था वो नंगा....
भाई इससे तो अंडे के अंदर
था वो चंगा....
सोच रहा है बाहर आखिर क्यों निकला है
तुरु रु रू
अरे चड्डी पहन के फूल खिला है फूल खिला है
जंगल जंगल पता चला है चड्डी पहन के फूल खिला है
जंगल जंगल पता चला है चड्डी पहन के फूल खिला है...
बेरोजगारी इतनी बढ़ गई है कि चड्डी पहन के ही फूल खिलाना पड़ेगा
अच्छा ये बताओ चाय से चायवाला की याद आई की नहीं?
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